कल आ कर कुछ देर मेरे साथ मंजी पर बैठी थी वोह धूप,
कुछ देर ही सही, पर जी भर के तपाया था उसने कल मुझे,
कह के गयी थी की तप के अब मैं सोना बन गया हूँ,
जा उसे कोई बताये, कि सोना बनने के लिए तो बस मेरी माँ की नज़रें ही काफी हैं ।
जो भुझा गयी मेरे सपनो के दीपक की लौ को, उस धुप से गिला नहीं,
की क्यूँ सुबह सवेरे मेरी आँखों में झांक, जगा देती है मुझे,
कह के गयी थी की अब रात की अँगड़ाईयों को चादर की तहों में समेट डालूँ,
जा उसे कोई बताये, कि सुबह सवेरे उठने के लिए मेरी माँ की हाथ की चाय की एक चुस्की ही काफी हैं।
भागती रही दिनभर दिन की दौड़ में मेरे साथ वोह धूप,
कुछ कच्चे कुछ पक्के सवालों का जवाब हम ढूंडते रहे मिल कर,
और रात को लेकर आई मलहम लगाने उन छालों पर, जो दिनभर चलने से पैरो में पड़ गए थे,
जा उसे कोई बताये, की रात को आराम से सोने के लिए मेरी माँ की लोरी की आवाज़ ही काफी है ।
आज फिर उस मंजी पर बैठा हूँ, उसी धुप के साथ,
कुछ गुफ्तगू हो रही है, चुपचाप, बस आँखों आँखों में,
दे रही हैं जीने के नुस्खे कुछ, बता रही है कुछ टोटके,
जा उसे कोई बताये, की जिंदा रहने के लिए बस मेरी माँ की दूआयें ही काफी हैं।
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